Shani Chalisa Pdf ( शनि चालीसा PDF )
शनि देव, जिन्हें शनि महाराज या शनिदेव भी कहा जाता है, हिन्दू धर्म में प्रमुख देवताओं में से एक हैं। शनि देवता को न्याय का देवता माना जाता है और वे ग्रहों में शनि ग्रह के अधिपति हैं। उनका वर्णन पुराणों और विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। शनिदेव को कर्मफल दाता भी कहा जाता है, अर्थात वे मनुष्यों को उनके कर्मों के अनुसार फल देते हैं।
शनि देव का स्वरूप
शनि देव का स्वरूप काफी विशिष्ट होता है। वे काले रंग के होते हैं, जिनके चार हाथ होते हैं। उनके हाथों में धनुष, वाण, त्रिशूल और गदा होती है। वे काले घोड़े पर सवार रहते हैं और उनका वाहन भी काला कौवा होता है। उनके सिर पर मुकुट और उनके शरीर पर नीले रंग का वस्त्र होता है।
शनि की पूजा और महत्व
शनिदेव की पूजा का विशेष महत्व है, विशेषकर उन लोगों के लिए जिनकी कुंडली में शनि की महादशा, अंतर्दशा या साढ़े साती का प्रभाव चल रहा हो। शनि देव की कृपा पाने के लिए भक्त शनिवार के दिन उनका व्रत रखते हैं, मंदिर जाते हैं, सरसों के तेल का दीपक जलाते हैं और शनि मंत्र का जाप करते हैं।
शनि के नाम और मंत्र
शनिदेव के अनेक नाम हैं जैसे कि शनैश्चर, कृष्ण, चायासुत, मंद, पिप्पलादि, सौरि इत्यादि। शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए निम्नलिखित मंत्र का जाप किया जाता है:
|| ॐ शं शनैश्चराय नमः ||
शनि देव का प्रभाव
शनि देव को न्याय का देवता कहा जाता है। वे हर व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार फल देते हैं। शनि के प्रभाव से व्यक्ति को कभी-कभी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, जिसे शनि की साढ़े साती या ढैया कहा जाता है। यह समय व्यक्ति के धैर्य और सहनशक्ति की परीक्षा लेता है, लेकिन अंततः यह व्यक्ति को मजबूत और अनुभव सम्पन्न बनाता है।
शनि की कथा
शनिदेव के जन्म की कथा भी बहुत प्रसिद्ध है। वे सूर्य देव और उनकी छाया पत्नी संज्ञा के पुत्र हैं। संज्ञा ने सूर्य देव के तेज को सहन न कर पाने के कारण अपनी छाया को उनके पास छोड़ दिया और स्वयं तपस्या करने चली गईं। छाया से उत्पन्न शनि को सूर्य देव ने अपनाया और शनि का पालन-पोषण किया।
शनिदेव का हिन्दू धर्म में अत्यधिक महत्व है। वे न्याय और कर्म के प्रतीक हैं और उनकी पूजा से व्यक्ति को अपने जीवन में आने वाली समस्याओं और बाधाओं से मुक्ति मिलती है। उनकी कृपा से व्यक्ति को जीवन में सुख, शांति और समृद्धि प्राप्त होती है।
Shiv Chalisa Pdf
शनि चालीसा
जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज ।
करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज ॥
॥ चौपाई ॥
जयति जयति शनिदेव दयाला ।
करत सदा भक्तन प्रतिपाला ॥
चारि भुजा, तनु श्याम विराजै ।
माथे रतन मुकुट छबि छाजै ॥
परम विशाल मनोहर भाला ।
टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला ॥
कुण्डल श्रवण चमाचम चमके ।
हिय माल मुक्तन मणि दमके ॥ ४॥
कर में गदा त्रिशूल कुठारा ।
पल बिच करैं अरिहिं संहारा ॥
पिंगल, कृष्णों, छाया नन्दन ।
यम, कोणस्थ, रौद्र, दुखभंजन ॥
सौरी, मन्द, शनी, दश नामा ।
भानु पुत्र पूजहिं सब कामा ॥
जा पर प्रभु प्रसन्न ह्वैं जाहीं ।
रंकहुँ राव करैं क्षण माहीं ॥ ८॥
पर्वतहू तृण होई निहारत ।
तृणहू को पर्वत करि डारत ॥
राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो ।
कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो ॥
बनहूँ में मृग कपट दिखाई ।
मातु जानकी गई चुराई ॥
लखनहिं शक्ति विकल करिडारा ।
मचिगा दल में हाहाकारा ॥ १२॥
रावण की गतिमति बौराई ।
रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई ॥
दियो कीट करि कंचन लंका ।
बजि बजरंग बीर की डंका ॥
नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा ।
चित्र मयूर निगलि गै हारा ॥
हार नौलखा लाग्यो चोरी ।
हाथ पैर डरवाय तोरी ॥ १६॥
भारी दशा निकृष्ट दिखायो ।
तेलिहिं घर कोल्हू चलवायो ॥
विनय राग दीपक महं कीन्हयों ।
तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों ॥
हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी ।
आपहुं भरे डोम घर पानी ॥
तैसे नल पर दशा सिरानी ।
भूंजीमीन कूद गई पानी ॥ २०॥
श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई ।
पारवती को सती कराई ॥
तनिक विलोकत ही करि रीसा ।
नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा ॥
पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी ।
बची द्रौपदी होति उघारी ॥
कौरव के भी गति मति मारयो ।
युद्ध महाभारत करि डारयो ॥ २४॥
रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला ।
लेकर कूदि परयो पाताला ॥
शेष देवलखि विनती लाई ।
रवि को मुख ते दियो छुड़ाई ॥
वाहन प्रभु के सात सजाना ।
जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना ॥
जम्बुक सिंह आदि नख धारी ।
सो फल ज्योतिष कहत पुकारी ॥ २८॥
गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं ।
हय ते सुख सम्पति उपजावैं ॥
गर्दभ हानि करै बहु काजा ।
सिंह सिद्धकर राज समाजा ॥
जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै ।
मृग दे कष्ट प्राण संहारै ॥
जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी ।
चोरी आदि होय डर भारी ॥ ३२॥
तैसहि चारि चरण यह नामा ।
स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा ॥
लौह चरण पर जब प्रभु आवैं ।
धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं ॥
समता ताम्र रजत शुभकारी ।
स्वर्ण सर्व सर्व सुख मंगल भारी ॥
जो यह शनि चरित्र नित गावै ।
कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै ॥ ३६॥
अद्भुत नाथ दिखावैं लीला ।
करैं शत्रु के नशि बलि ढीला ॥
जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई ।
विधिवत शनि ग्रह शांति कराई ॥
पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत ।
दीप दान दै बहु सुख पावत ॥
कहत राम सुन्दर प्रभु दासा ।
शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा ॥ ४०॥
॥ दोहा ॥
पाठ शनिश्चर देव को, की हों भक्त तैयार ।
करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार ॥